हिंदू धर्म में, भगवान श्री विष्णु, जिनका नाम “सर्वव्यापी,” का अर्थ है दुनिया का रक्षक और नैतिक आदेश (धर्म) के बहालकर्ता। वह शांतिपूर्ण और दयालु है। वैष्णव्यों के लिए, भगवान श्री विष्णु सर्वोच्च भगवान है।
भगवान श्री विष्णु को अक्सर उनकी पत्नी, लक्ष्मी (जिसे श्री भी कहा जाता है) के साथ चित्रित किया जाता है, और आमतौर पर चार हथियार होते हैं प्रत्येक हाथ उसकी देवत्व का प्रतीक है: शंख, चक्र, गदा और कमल। उसकी छाती पर बाल का एक बाल का छोटा गुच्छा उनकी अमरता का प्रतीक है, और वे अपनी गर्दन के चारों ओर गहना कौस्तुभा पहनते हैं। वे आमतौर पर एक गहरे रंग के साथ चित्रित किया जाता है, जैसा कि उनके अवतार होते हैं श्री विष्णु अक्सर झुकते या सो जाते दिखते हैं क्योंकि वे दुनिया के विनाश और नवीनीकरण का इंतजार कर रहे है।
भगवान विष्णु के चार हाथ जीवन के चार रूपों के विकास के चार चरणों का प्रतीक हैं। वे अंतरिक्ष के चार दिशाओं और पूर्ण शक्तियों के ऊपर अपने अधिकार को दर्शाते हैं। जीवन के चार अलग-अलग उद्देश्य हैं सुख, सफलता, धार्मिकता और मुक्ति जिसके परिणामस्वरूप मानव जीवन के विभाजन को चार युगों में मिला। भगवान विष्णु के इन चार गुणों को उनके चार हाथों में रखे हुए हथियारों से प्रतीकात्मक रूप से प्रदर्शित किया गया है।
श्री विष्णु अपने दस अवतारों (अवतार) के माध्यम से सबसे अच्छी तरह जानते हैं, जो दुनिया में जब विकार हो जाते हैं, श्री राम और श्री कृष्ण, जिनकी कहानियों को महाकाव्य और पुराणों में बताया गया है, अब तक श्री विष्णु के सबसे लोकप्रिय अवतार हैं।
श्री विष्णु के दस अवतार हैं:
– मत्स्य (मछली)
– कुर्ला (कछुए)
– वरहा (सूअर)
– नरसिंह (मानव शेर)
– वामन (बौना)
– परशुराम (योद्धा-पुजारी)
– श्री राम (राजकुमार)
– श्री कृष्ण (गाय-मेंढक)
– बुद्ध (ऋषि )
– कल्कि (घुड़सवार, जो अभी तक दिखाई नहीं दे रहा है)
।। श्री विष्णु चालीसा।।
।।दोहा।।
विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय ।
कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥
।।चौपाई।।
नमो विष्णु भगवान खरारी,कष्ट नशावन अखिल बिहारी ।
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी,त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥1॥
सुन्दर रूप मनोहर सूरत,सरल स्वभाव मोहनी मूरत ।
तन पर पीताम्बर अति सोहत,बैजन्ती माला मन मोहत ॥2॥
शंख चक्र कर गदा बिराजे,देखत दैत्य असुर दल भाजे ।
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे,काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥3॥
सन्तभक्त सज्जन मनरंजन,दनुज असुर दुष्टन दल गंजन ।
सुख उपजाय कष्ट सब भंजन,दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥4॥
पाप काट भव सिन्धु उतारण,कष्ट नाशकर भक्त उबारण ।
करत अनेक रूप प्रभु धारण,केवल आप भक्ति के कारण ॥5॥
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा,तब तुम रूप राम का धारा ।
भार उतार असुर दल मारा,रावण आदिक को संहारा ॥6॥
आप वाराह रूप बनाया,हरण्याक्ष को मार गिराया ।
धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया,चौदह रतनन को निकलाया ॥7॥
अमिलख असुरन द्वन्द मचाया,रूप मोहनी आप दिखाया ।
देवन को अमृत पान कराया,असुरन को छवि से बहलाया ॥8॥
कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया,मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया ।
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया,भस्मासुर को रूप दिखाया ॥9॥
वेदन को जब असुर डुबाया,कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया ।
मोहित बनकर खलहि नचाया,उसही कर से भस्म कराया ॥10॥
असुर जलन्धर अति बलदाई,शंकर से उन कीन्ह लडाई ।
हार पार शिव सकल बनाई,कीन सती से छल खल जाई ॥11॥
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी,बतलाई सब विपत कहानी ।
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी,वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥12॥
देखत तीन दनुज शैतानी,वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ।
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी,हना असुर उर शिव शैतानी ॥13॥
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे,हिरणाकुश आदिक खल मारे ।
गणिका और अजामिल तारे,बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥14॥
हरहु सकल संताप हमारे,कृपा करहु हरि सिरजन हारे ।
देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे,दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥15॥
चहत आपका सेवक दर्शन,करहु दया अपनी मधुसूदन ।
जानूं नहीं योग्य जब पूजन,होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥16॥
शीलदया सन्तोष सुलक्षण,विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ।
करहुं आपका किस विधि पूजन,कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥17॥
करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण,कौन भांति मैं करहु समर्पण ।
सुर मुनि करत सदा सेवकाईहर्षित रहत परम गति पाई ॥18॥
दीन दुखिन पर सदा सहाई,निज जन जान लेव अपनाई ।
पाप दोष संताप नशाओ,भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥19॥
सुत सम्पति दे सुख उपजाओ,निज चरनन का दास बनाओ ।
निगम सदा ये विनय सुनावै,पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥20॥